फुले मूवी( PHULE MOVIE ): ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले की सच्ची कहानी | शिक्षा, समानता और 19वीं सदी के भारत में जातिवाद के खिलाफ संघर्ष

फुले मूवी: सिर्फ एक फिल्म नहीं, समाज में बदलाव की एक क्रांति?

फुले मूवी( PHULE MOVIE )

क्या आपने कभी सोचा है कि एक फ़िल्म में इतनी ताकत हो सकती है कि वह लोगों की सोच को बदल दे, इतिहास की छिपी सच्चाई सामने लाए और समाज में एक आंदोलन की तरह फैल जाए? साल 2025 में रिलीज़ हुई फ़िल्म "फुले" कुछ ऐसी ही है। यह फ़िल्म सिर्फ़ मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी चेतना की आग है जो सीधे दिलों को छू रही है। यह फ़िल्म महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन और संघर्षों पर आधारित है।

विषय वस्तु और महत्व: 19वीं सदी के भारत का दर्पण

"फुले" फ़िल्म हमें 19वीं सदी के भारत, खासकर पुणे में ले जाती है, जब समाज में जातिवाद और भेदभाव चरम पर था। ऊंची जातियों का दबदबा था और निचली जातियों को कोई हक़ नहीं था; लड़कियों की शिक्षा के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था। ऐसे समय में, ज्योतिबा फुले ने शिक्षा और समानता के माध्यम से समाज में बदलाव लाने का सपना देखा। फ़िल्म उनके बचपन से लेकर बड़े होने तक के सफर को दिखाती है, जब उन्होंने सामाजिक भेदभाव का कड़वा अनुभव किया। ज्योतिबा ने थॉमस पेन की 'राइट्स ऑफ मैन' जैसी पश्चिमी किताबों को पढ़ा, जिसने उन्हें भारत में सबको बराबर हक़ मिलने के बारे में सोचने पर मजबूर किया।

फ़िल्म ज्योतिबा और सावित्रीबाई के रिश्ते को भी खूबसूरती से दर्शाती है, जो प्यार और सम्मान से भरा था। ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को घर पर ही पढ़ना सिखाया, और सावित्रीबाई ने पढ़ाई के महत्व को समझा। फ़िल्म में एक विधवा औरत के साथ हुए दुर्व्यवहार का मार्मिक दृश्य है, जिसने ज्योतिबा और सावित्रीबाई को समाज बदलने का फैसला करने पर मजबूर किया। वे समझ गए कि शिक्षा ही लोगों की सोच बदलने का एकमात्र रास्ता है।

फिल्म का प्रभाव और वर्तमान प्रासंगिकता: आज भी क्यों है इतनी ज़रूरी?

यह फ़िल्म 2025 में भी अविश्वसनीय रूप से प्रासंगिक लगती है। यह जातिवाद, छुआछूत, विधवाओं की दुर्दशा और महिलाओं की शिक्षा जैसे कई मुद्दों को छूती है। फ़िल्म दिखाती है कि कैसे ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला, जब महिलाओं का पढ़ना पाप समझा जाता था। सावित्रीबाई खुद शिक्षिका बनीं और रास्ते में गोबर फेंकने या पत्थर मारने जैसी मुश्किलों के बावजूद हर दिन स्कूल जाती रहीं। उनके संघर्ष और हिम्मत ने दर्शकों को भावुक कर दिया और उनकी छात्राओं के प्रति उनके शब्द "तुम सब मेरी उम्मीद हो" दिल छू लेते हैं।

फुले मूवी( PHULE MOVIE )
दर्शकों के अनुसार, यह फ़िल्म वह बात कहती है जो कई बार सरकारें भी नहीं कह पातीं। यह एक सामाजिक आंदोलन की तरह लोगों को जोड़ रही है, जागरूकता फैला रही है और बदलाव की नींव रख रही है। फ़िल्म देखने वाले सोचते हैं, उनके चेहरे पर गर्व होता है और आंखों में नमी आ जाती है। बहुत से दर्शक महसूस करते हैं कि फ़िल्म भारत की उस सच्चाई को दिखाती है जो आज भी कहीं-कहीं मौजूद है। यह फ़िल्म यह भी दिखाती है कि अगर एक स्त्री ठान ले तो समाज की परतों को भी बदल सकती है। यह फिल्म भले ही पैसे नहीं कमाएगी, लेकिन जो भी इसे देखेगा उसके दिमाग में हमेशा के लिए रह जाएगी।

फिल्म को पेश आईं चुनौतियाँ: डर और विरोध की कहानी

"फुले" फ़िल्म का रिलीज़ होना आसान नहीं था। इसे मूल रूप से 11 अप्रैल को रिलीज़ होना था, लेकिन सेंसर बोर्ड ने बीच में आकर रिलीज़ को लेट करवाया और कई बदलाव कराए गए। इसका कारण फ़िल्म के कंटेंट और विषय वस्तु से डर बताया गया है। सूत्रों के अनुसार, फ़िल्म का विषय विवादास्पद है, लेकिन केवल उन लोगों के लिए जो इसे रोकना चाह रहे थे। कुछ लोग जानबूझकर इस फ़िल्म के बारे में विवाद नहीं करना चाहते हैं ताकि इसका नाम सबको पता न चल जाए; इतना डर किसी फ़िल्म का पहले नहीं देखा गया।

फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। इसे बनाने में ₹25 करोड़ का बजट खर्च हुआ था, लेकिन इसने पहले दिन सिर्फ ₹25 लाख और कुल कमाई ₹1.5 करोड़ के आसपास की। यह इस बात का प्रमाण है कि किसी फ़िल्म का अच्छा होना उसके बॉक्स ऑफिस पर चलने की गारंटी नहीं होता, खासकर पिछले कुछ हफ्तों में। लखनऊ जैसे बड़े शहर में भी यह फ़िल्म ज़्यादातर सिनेमाघरों में रिलीज़ नहीं हुई। लोगों का मानना है कि यह जानबूझकर किया गया है ताकि ज़्यादा लोग जागरूक न हो सकें और समाज में भेदभाव और पाखंड के खिलाफ़ सच्चाई सामने न आए। कुछ दर्शक इसे ऊंची जातियों द्वारा जागरूकता रोकने की 'चाल' बताते हैं। यह फ़िल्म 'बिना बोले बॉयकॉट' भी कर दी गई है। दर्शकों का मानना है कि सरकार भी इसे टैक्स-फ्री नहीं करेगी, भले ही यह महिलाओं की शिक्षा पर आधारित है, क्योंकि वे इसे आसानी से रिलीज़ भी नहीं होने दे रहे हैं।

कलाकार और निर्देशन: दमदार अभिनय और सशक्त चरित्र

फ़िल्म के अभिनेताओं के काम की बहुत सराहना की गई है। प्रतीक गांधी, जिन्हें आपने शायद किसी बेहतरीन शो में देखा होगा, और शरद केलकर, जिन्होंने नरेशन को आवाज़ दी है, दोनों ने इस फ़िल्म को और ताकत दी है। दर्शक कहते हैं कि दोनों एक्टर्स ने ऐसा काम किया है कि आप उनकी असली पहचान भूलकर उन्हें हमेशा रिस्पेक्ट से याद करेंगे। फ़िल्म के किरदारों को भी दमदार लिखा गया है, जो एक्टर्स के लुक के साथ-साथ फ़िल्म के असर को दुगना करता है। खासकर सावित्रीबाई का किरदार बहुत मजबूत दिखाया गया है। उनका संघर्ष, उनका बलिदान और उनका संकल्प दर्शकों के मन में गूंज रहा है। फ़िल्म का कंटेंट पावरफुल है और एक्टिंग भी जबरदस्त है।

सार्वजनिक और आलोचक प्रतिक्रिया: हाउसफुल शो और सच्चाई का साथ

चुनौतियों के बावजूद, जिन जगहों पर फ़िल्म रिलीज़ हुई, वहाँ दर्शकों का जबरदस्त क्रेज़ देखने को मिला। लखनऊ के जिस इकलौते मॉल में फ़िल्म रिलीज़ हुई, उसके शो हाउसफुल थे और टिकट मिलना मुश्किल था। दर्शक फ़िल्म देखकर तालियां बजा रहे थे और भावनात्मक पलों पर रो रहे थे। राहुल गांधी जैसे नेता ने भी इस फ़िल्म की तारीफ की और कहा कि यह हर भारतीय को देखनी चाहिए। दर्शकों का मानना है कि यह फ़िल्म किसी धर्म या जाति के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि पाखंडों, असामाजिकता, असमानता और भेदभाव के खिलाफ़ है।

फ़िल्म देखने आए कुछ दर्शक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि फ़िल्म में जो दिखाया गया है, वह भारत की सच्चाई है। एक दर्शक ने कहा कि सच्चाई थोड़ी कड़वी होती है, और यही कड़वी सच्चाई फ़िल्म में दिखाई गई है। कुछ लोगों ने बहस की कि फ़िल्म में ब्राह्मणों को नेगेटिव दिखाया गया है, लेकिन दूसरे दर्शकों ने कहा कि फ़िल्म सच दिखा रही है और कुछ लोगों की गलती के लिए पूरी कम्युनिटी को ज़िम्मेदार ठहराना गलत है, हालांकि कुछ दर्शकों ने यह भी कहा कि जातिवाद आज भी मौजूद है और जो इसे नकारते हैं, वे विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति से बोलते हैं। कुल मिलाकर, फ़िल्म देखने वाला दर्शक वर्ग इसे समाज के उत्थान के लिए एक महत्वपूर्ण और आवश्यक फ़िल्म मानता है।

फुले मूवी( PHULE MOVIE )
"फुले" 2025 में रिलीज़ हुई एक हिंदी फ़िल्म है जो प्रसिद्ध समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है। यह फ़िल्म 19वीं सदी के भारत, विशेषकर पुणे में जातिवाद, भेदभाव और महिलाओं की शिक्षा की चुनौतियों को दर्शाती है। कई स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, फ़िल्म ने महत्वपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक बहस छेड़ दी है।

मुख्य विषय और महत्वपूर्ण विचार/तथ्य:

  1. समाज सुधार और शिक्षा का महत्व:
  • फ़िल्म का केंद्रीय विषय ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का शिक्षा के माध्यम से समाज को बदलने का संघर्ष है।
  • यह उस दौर को दिखाती है जब निचली जातियों और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था।
  • फ़िल्म इस बात पर ज़ोर देती है कि शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे लोग अपनी सोच बदल सकते हैं और सामाजिक असमानता को दूर कर सकते हैं।
  • एक स्रोत के अनुसार, "ज्योतिबा कहता है शिक्षा ही वह रास्ता है जिससे हम लोगों की सोच बदल सकते हैं सावित्रीबाई उसकी बात से सहमत होती है।"
  • ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था।
  1. जातिवाद और भेदभाव का चित्रण:
  • फ़िल्म 19वीं सदी के पुणे में व्याप्त जातिवाद और ऊंच-नीच के भेदभाव को उजागर करती है।
  • यह दर्शाती है कि कैसे निचली जातियों के लोगों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था और उन्हें बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखा जाता था।
  • स्कूल में एक निम्न जाति के बालक को प्रवेश न मिलने का दृश्य इस भेदभाव का मार्मिक चित्रण करता है।
  • फ़िल्म पाखंडों और असामाजिक असमानता के खिलाफ़ है, जैसा कि एक दर्शक ने कहा, "फिल्में है किसी जात के खिलाफ तो फिल्में बिल्कुल नहीं वहां तो पाखंडों के खिलाफ है पाखंडों असामाजिकता जो असमानता है उसके खिलाफ है भेदभाव के खिलाफ है।"
  1. महिलाओं का सशक्तिकरण और सावित्रीबाई फुले का संघर्ष:
  • फ़िल्म सावित्रीबाई फुले के सशक्त किरदार को प्रमुखता से दिखाती है।
  • वह न केवल पहली भारतीय महिला शिक्षिका बनीं, बल्कि समाज के विरोध और हमलों का सामना करते हुए भी लड़कियों को पढ़ाना जारी रखा।
  • रास्ते में गोबर फेंके जाने और पत्थर मारे जाने के बावजूद उनका स्कूल जाना और पढ़ाना उनकी हिम्मत और दृढ़ संकल्प को दर्शाता है। एक दृश्य में, पत्थर लगने से माथा लहूलुहान होने पर भी वह नहीं रुकतीं और कहती हैं, "तुम सब मेरी उम्मीद हो और मैं तुम्हें पढ़ाकर समाज को बदल दूंगी।"
  • फ़िल्म विधवाओं की दयनीय स्थिति और उनके लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई द्वारा खोले गए आश्रम को भी दर्शाती है।
  1. फ़िल्म के निर्माण और रिलीज़ में चुनौतियाँ:
  • फ़िल्म को सेंसर बोर्ड द्वारा देरी और कई कट का सामना करना पड़ा।
  • एक स्रोत के अनुसार, "खुद सेंसर बोर्ड बीच में आया और फिल्म की रिलीज़ को लेट करवाया इतने सारे चेंजेस करवाए गए थे इस फिल्म में कि पूरी लिस्ट शायद एक बार में स्क्रीन पर फिट नहीं हो पाएगी और यह सब किस लिए सिर्फ एक जवाब डर फिल्म के कंटेंट और सब्जेक्ट से डर लगता है साहब।"रिलीज़ के बाद भी, फ़िल्म को व्यापक वितरण में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। लखनऊ जैसे बड़े शहर में भी यह कुछ ही थिएटरों में रिलीज़ हुई।
  • दर्शकों का मानना है कि व्यापक रिलीज़ में बाधा डालने के पीछे समाज के कुछ वर्गों की चाल है जो जागरूकता नहीं चाहते। एक दर्शक ने कहा, "कुछ ना कुछ चाल है क्या अच्छा वो समझते हैं ऊंची जातियों और नीचे जातियों की चाल है कि वो लोग ना देख सके जागरूकता ना आए समाज में इस तरह का एक चाल है।"
  1. बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन और प्रभाव:
  • बड़े बजट (₹25 करोड़) के बावजूद, फ़िल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन (पहले दिन ₹25 लाख, कुल ₹1.5 करोड़) निराशाजनक रहा।
  • एक स्रोत ने कहा, "उस नुकसान को कौन भरेगा जो फिल्म बनाने वाले अब झेल रहे हैं क्योंकि किसी को पता ही नहीं है यह फिल्म रिलीज हुई भी है या नहीं।"
  • हालांकि, बॉक्स ऑफिस पर असफल होने के बावजूद, फ़िल्म ने दर्शकों पर गहरा भावनात्मक और वैचारिक प्रभाव डाला है।
  • जो लोग फ़िल्म देख रहे हैं, वे इसे एक महत्वपूर्ण और आंखें खोलने वाला अनुभव बता रहे हैं।
  • एक स्रोत के अनुसार, "यह सिर्फ कमाई की दौड़ नहीं है यह दिल जीतने का सिलसिला है फुले ने वह बात कह दी जो कई बार सरकारें भी नहीं कह पाती यह फिल्म एक सामाजिक आंदोलन की तरह लोगों को जोड़ रही है जागरूकता फैला रही है और बदलाव की बुनियाद रख रही है।"
  • दर्शकों का मानना है कि फ़िल्म पैसे नहीं कमाएगी, लेकिन जो इसे देखेगा, उसके दिमाग में हमेशा के लिए रह जाएगी। "यह फिल्म भले ही पैसे नहीं कमाएगी लेकिन जो भी इसको देखेगा उसके दिमाग में हमेशा के लिए रह जाएगी और चाह के भी इन दोनों को आपकी आंखें भूल नहीं पाएंगी।"
  1. कलाकारों का प्रदर्शन:
  • प्रतीक गांधी ने ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का किरदार निभाने वाले अभिनेताओं की प्रशंसा की गई है।
  • उनके अभिनय को दमदार और विश्वसनीय बताया गया है, जिसने कहानी के प्रभाव को बढ़ाया है।
  • शरद केलकर ने फिल्म में नरेशन दिया है, जिसकी सराहना की गई है और कहा गया है कि इसने फिल्म को और ताकत दी है।
  1. सामयिक प्रासंगिकता:
  • फ़िल्म 2025 में भी अपनी सामयिक प्रासंगिकता रखती है, क्योंकि जातिवाद और भेदभाव आज भी समाज में मौजूद हैं।
  • फ़िल्म दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि 19वीं सदी के मुद्दे आज भी क्यों प्रासंगिक हैं।
  • एक स्रोत के अनुसार, "आप थिएटर से निकलोगे तो दिमाग में यही सोच रहेगे कि यह फिल्म आज 2025 में भी इतना ज्यादा रेलेवेंट कैसे लग सकती है।"
  • फ़िल्म आज भी मौजूद सामाजिक असमानताओं पर प्रकाश डालती है और बदलाव की आवश्यकता पर ज़ोर देती है।

निष्कर्ष:

"फुले" एक महत्वपूर्ण और साहसी फ़िल्म है जो महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के प्रेरणादायक जीवन और समाज सुधार के उनके अथक प्रयासों को दर्शाती है। सेंसर बोर्ड से लेकर वितरण तक कई चुनौतियों का सामना करने और बॉक्स ऑफिस पर असफल होने के बावजूद, फ़िल्म ने अपने दर्शकों पर एक गहरा और स्थायी प्रभाव छोड़ा है। यह शिक्षा, समानता और सामाजिक न्याय के महत्व पर ज़ोर देती है और 19वीं सदी के मुद्दों को आज भी प्रासंगिक साबित करती है। फ़िल्म को एक "क्रांति," "आंदोलन," और "चेतना की आग" के रूप में देखा जा रहा है, जो उन सच्चाइयों को उजागर करने की हिम्मत करती है जिन पर अक्सर पर्दा डाला जाता है।


"फुले" सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं है, बल्कि ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के क्रांति भरे जीवन और समाज को बदलने के उनके असाधारण प्रयासों की एक शक्तिशाली प्रस्तुति है। सेंसरशिप, सीमित रिलीज़ और बॉक्स ऑफिस पर खराब प्रदर्शन जैसी चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, यह फ़िल्म अपने उद्देश्य को पूरा करती है। यह दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है, उन्हें जागरूक करती है और समाज में समानता लाने की प्रेरणा देती है। यदि आप सोचने वाला सिनेमा पसंद करते हैं और इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय को गहराई से समझना चाहते हैं, तो "फुले" फ़िल्म देखना आपके लिए एक अनमोल अनुभव हो सकता है। इसे देखें, इस पर विचार करें और इसकी सच्चाई को महसूस करें।

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